यूपी में शुरू हुई वोटो पर हक जमाने की होड़ मुस्लिम नेता दे रहे चुनौती

 उत्तर प्रदेश का चुनावी माहोल गरमाता जा रहा है इधर बीएसपी ने इस बार ज्यादा तर अपने मुस्लिम कैंडिडेट रखने का फैसला लिया है ।तो सपा ने भी ऍमएलसी चुनाव को लेकर सभाए शुरू कर दी है और इन दोनों पार्टियों के बीच इस बार वर्चस्व की लड़ाई आकी जा रही है। ऐसे में क्या मुस्लिम समुदाय ने किसी भी चुनाव में अपना समर्थन देने के अधिकार को चुनने की जिम्मेदारी किसी एक शख्स को दे रखी है? भले ही ऐसा होना संभावित न लगे, लेकिन कम से कम उत्तर प्रदेश में तो ऐसे कई चेहरे उभरने लगे हैं जो प्रदेश के 2017 के चुनाव में अपने समुदाय का एकमुश्त समर्थन देने का दावा करते हुए बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं।
चुनाव पूर्व के जाने-पहचाने घटनाक्रम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों में पहले तो दलित वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता दिखने की होड़ लगी और अब मुस्लिम समुदाय का एक वोट बैंक के रूप में उपयोग करने की संभावनाएं तलाशने का क्रम शुरू हो चुका है। उत्तर प्रदेश में चूंकि यह वर्ग पूरे प्रदेश में कई जगह चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है इसलिए केवल राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि समुदाय के धार्मिक नेता भी अपने महत्व को दर्शाने में जुट गए हैं।
प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में तो यह जिम्मेदारी पहले से ही है, लेकिन अब उनके तथाकथित एकाधिकार को चुनौती देने के लिए अन्य राज्यों के मुस्लिम नेता भी प्रदेश में अपने उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। बीते दिनों हुए तीन उप-चुनावों में हैदराबाद के एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने फैजाबाद के निकट बीकापुर में हुए एक उप-चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारा और खुले तौर पर एक जनसभा में मुस्लिम और दलित वर्ग को साथ आने की अपील की। यही नहीं, उनका उम्मीदवार मुस्लिम न होकर एक दलित था, फिर भी उसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रत्याशी से केवल 77 वोट कम मिले जो अपने आप में यह संकेत है कि मुस्लिम वर्ग नए विकल्प को अपनाने के बारे में सोच सकता है। ओवैसी ने अपनी प्रचार सभा के दौरान सभी राजनीतिक दलों पर हमला बोला, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के बारे में कुछ न कहकर यह संकेत दिया है कि बीएसपी के साथ जुड़ने की संभावनाएं बरक़रार हैं।
ओवैसी ने पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में बिहार के सीमांचल क्षेत्र में पहले 24 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा किया था लेकिन अंततः केवल 6 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा। भले ही उनका कोई उम्मीदवार जीता न हो, लेकिन उनके ऊपर मुस्लिम वोट बांटने का आरोप जरूर लगा और कहा गया कि वे परोक्ष रूप से बीजेपी को फायदा पहुंचा गए। शायद इसी आरोप से बचने के लिए उत्तर प्रदेश के उप-चुनाव में उन्होंने मुस्लिम बहुल मुज़फ्फरनगर और देवबंद (सहारनपुर) में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा और बीकापुर में अपनी मजबूती का एहसास करा गए।
पीस पार्टी द्वारा इधर कुछ दिनों से अख़बारों में विज्ञापन और कुछ शहरों में होर्डिंग लगाकर उनके अस्तित्व की जानकारी फिर दी जा रही है, लेकिन उनको समर्थन देने से पहले यह तथ्य आड़े आ जाता है कि उनके चार विधायक पार्टी छोड़कर अन्य पार्टियों में जा चुके हैं। सपा के लिए वैसे तो मुस्लिम समर्थन बनाये रखने का जिम्मा आज़म खान पर ही है, लेकिन वे भी किसी न किसी तौर पर पार्टी या सरकार से अपनी नाराज़गी का इज़हार कर ही देते हैं। शायद इसीलिए पार्टी में उनके विकल्प के रूप में एक के बजाए कई मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ाने की चर्चा भी होती रहती है। ऐसे में अगर मुस्लिम वर्ग एक बार फिर किसी एक नेता या पार्टी की अपील पर ध्यान न दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुल मिला कर अगर कहा जाये तो हर पार्टी के नेता वा लीडर अपनी अपनी पार्टियों के फयदे की सोचते है और हर वर्ग के लोगो का पॉलिटिकली फयदा उठाते है।

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